• मुश्किल वक्त में मोदी जी का यूरोप दौरा

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साल 2022 के पांचवें महीने में पहली विदेश यात्रा पर निकले हैं

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    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साल 2022 के पांचवें महीने में पहली विदेश यात्रा पर निकले हैं। जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस इन तीन देशों की तीन दिन की यात्रा पर प्रधानमंत्री गए हैं। दौरे पर रवानगी के वक्त उन्होंने कहा था कि उनका यूरोप दौरा ऐसे समय हो रहा है जब यह क्षेत्र कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। प्रधानमंत्री की इस बात से असहमत होने का कोई कारण नहीं है। रूस और यूक्रेन के बीच जंग को दो महीने से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन अब तक सुलह के कोई आसार नजर नहीं आ रहे। अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का रूस पर कोई असर नहीं हुआ। जबकि यूक्रेन नाटो देशों से मदद की उम्मीद में तबाह हो गया है।

    यूरोप में युद्ध का ये संकट तो इस साल आया है, इससे पहले के दो साल कोरोना की मार सहते हुए निकले हैं। इसलिए वहां भी आर्थिक संकट, सामाजिक उथल-पुथल, राजनैतिक असंतोष ये सब किसी न किसी तरह महसूस किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस चुनौती भरे दौर में अपनी यात्रा से यूरोपीय साझेदारों के साथ सहयोग की भावना को मजबूत करेंगे। इस यात्रा में भारत तथा यूरोप के बीच व्यापार, रक्षा, सुरक्षा और ऊर्जा संबंधों को आगे बढ़ाने पर ज़ोर रहेगा। लेकिन ये उद्देश्य किस तरह पूरे होंगे, ये अभी कह पाना कठिन है।
    रूस और यूक्रेन के बीच जंग में भारत का रुख काफी हद तक तटस्थ रहा है। अमेरिका-यूरोप के दबाव के बावजूद भारत ने रूस के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया है।

    यूक्रेन पर हमले के लिए भारत रूस को खुले तौर पर कुछ नहीं कह रहा है, और बातचीत तथा कूटनीति पर ज़ोर दे रहा है, इसके साथ ही रूस के साथ हथियारों और तेल का व्यापार जारी रखे हुए है। रविवार को विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने कहा है कि , 'जहां तक यूक्रेन पर भारत के रुख़ का सवाल है, उसे कई मंचों पर बहुत विस्तार से बताया गया है, और स्पष्ट किया गया है 'हमारा रुख़ हमेशा से ये रहा है कि यूक्रेन में युद्ध थमना चाहिए, और समाधान का रास्ता कूटनीति और बातचीत से होकर जाता है'। रूस भारत का पुराना और विश्वस्त मित्र देश रहा है, लेकिन बदलते वक्त के साथ भारत के आर्थिक-सामरिक-वाणिज्यिक हित अन्य देशों के साथ भी जुड़े हैं। ऐसे में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चलते हुए अपने हितों का संतुलन साधना कठिन है।

    प्रधानमंत्री के तीन दिनों के दौरे में उन पर यह दबाव बनाने की कोशिश फिर की जाएगी कि वे रूस के खिलाफ कुछ कहें या भारत के नजरिए में कोई बदलाव लाया जाए। अगर भारत यूरोप के अपने साझेदारों के दबाव में झुकता दिखता है तो फिर गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को ठेस पहुंचेगी और रूस के साथ संबंधों में खटास आएगी। लेकिन अगर भारत किसी भी दबाव में नहीं आता है, तो फिर क्या हमारे यूरोपीय साझेदार व्यापार, रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में मदद और सहयोग का हाथ बढ़ाते हैं, ये देखना होगा। भारत के लिए ये समय दुधारी तलवार पर चलने जैसा है, जहां हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा। क्योंकि राष्ट्रप्रमुखों के दौरों और मुलाकातों के वक्त दोस्ती और सद्भाव की बड़ी बातें होती हैं, लेकिन उन पर अमल हो, तभी इन दौरों की सार्थकता होगी।

    वैसे मोदीजी केवल यूरोप के चुनौती भरे वक्त में यात्रा पर नहीं हैं। इस वक्त देश में कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हालात हैं। महंगाई, बेरोजगारी और कमजोर अर्थव्यवस्था का संकट तो है ही, देश इस वक्त बिजली और ऊर्जा के भी भारी संकट से गुजर रहा है। सरकार ने पहले से अनुमान लगा लिया होता कि हमारे पास कितने दिन का कोयला बचा है और उसकी आपूर्ति न होने से किस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था हो सकती है, तो शायद इस संकट को टाला जा सकता था। मगर सरकार ने आग लगने के बाद कुआं खोदने का फैसला लिया है। बिजली की कमी कुछेक हफ्तों तक और परेशान करने के बाद शायद दूर भी हो जाए।

    लेकिन देश में इन के अलावा सामाजिक ताने-बाने के बिखरने का संकट भी गहरा गया है। पिछले कई दिनों से सांप्रदायिक हिंसा और तनाव के माहौल में मोदीजी से उम्मीद की जा रही थी कि वे कभी तो कुछ कहेंगे और हिंदुत्व के नाम पर नफरत फैलाने वालों को कोई नसीहत देंगे। मगर कुछ बोलना या शांति की अपील करना तो दूर, मोदीजी अल्पसंख्यकों और पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ते हुए विदेश चले गए। 3 दिनों में 65 घंटों में कम से कम 25 कार्यक्रमों में शामिल होने का एक नया रिकार्ड शायद उनके नाम दर्ज हो जाएगा। लेकिन इससे भारत की आंतरिक समस्याओं पर क्या फर्क पड़ेगा, ये सवाल तो उठेगा ही।

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